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Chandrapur

Chandrapur: भावी नगरसेवकों की दुर्दशा; न चुनाव, न काम, फिर भी मतदाताओं की मांगें पूरी करने की मजबूरी


(पवन झबाडे)

चंद्रपुर: वार्ड में आवारा कुत्ता मर गया, भाऊ पालिका को बताओ। गणेशोत्सव, दुर्गा उत्सव, शिवजयंती है, दादा चंदा चाहिए... गजानन महाराज का प्रकट दिवस है, भैय्या महाप्रसाद की व्यवस्था करो... भाऊ, वार्ड में क्रिकेट टूर्नामेंट आयोजित करना है! ये सब मतदाताओं के विनम्र आदेश हैं, जिनका पालन किए बिना कोई चारा नहीं। उधारी लेकर नेतागिरी करनी पड़ रही है और टिकट के लिए नेताओं के पीछे भागना पड़ रहा है। तीन साल की दौड़-भाग में चप्पलें घिस गईं, जेब खाली हो गई, लेकिन चुनाव की तारीख अभी तक नहीं आई। रुक गए तो खत्म हो जाएंगे, इसलिए भागदौड़ जारी है।

फरवरी 2022 में चंद्रपुर जिला परिषद का कार्यकाल समाप्त हुआ। अप्रैल 2022 में चंद्रपुर महानगरपालिका प्रशासन के हाथ में चली गई। जिले की नगर परिषदों और नगर पंचायतों में भी प्रशासक नियुक्त हैं। भावी नगरसेवक चुनाव की उम्मीद में जनता के लिए काम करने लगे, लेकिन ओबीसी आरक्षण और वार्ड संरचना जैसे तकनीकी मुद्दों पर मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के कारण तीन साल से चुनाव नहीं हो रहे हैं।

हर बार कार्यकाल समाप्त होने से पहले चुनावी बिगुल बज जाता था, लेकिन इस बार केवल तारीखें मिल रही हैं। पिछले चुनाव में जीते हुए उम्मीदवार फिर से जीतने की कोशिश में लगे हैं, जबकि दूसरे-तीसरे नंबर पर रहे प्रत्याशी इस बार जनता से मौका देने की अपील कर रहे हैं। हर बार जमानत जब्त करवाने वाले भी जोश के साथ चुनावी तैयारियों में जुटे थे, लेकिन उन्हें केवल अदालती तारीखें ही मिल रही हैं।

तीन साल में हर महीने कोई न कोई त्योहार, जयंती, पुण्यतिथि या नेता का जन्मदिन आता है, जिसके लिए होर्डिंग-बैनर लगवाने पड़ते हैं। और इन सबका खर्चा भावी नगरसेवक ही उठाते हैं। त्योहारों में जनता खुश रहती है, लेकिन इन उम्मीदवारों की छाती पर पत्थर पड़ते हैं। जो पैसा तीन साल पहले चुनाव के लिए इकट्ठा किया था, वह खत्म हो चुका है। कुछ की हालत इतनी खराब हो गई है कि उन्हें भी उधारी लेकर मतदाताओं की उम्मीदें पूरी करनी पड़ रही हैं।

नेताओं की सभाओं के लिए भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं भावी नगरसेवकों की होती है। खुद के पैसे खर्च करके लोग लाने पड़ते हैं, लेकिन फिर भी टिकट की गारंटी नहीं होती। जब वे नगरसेवक थे, तब उन्हें छोटे-मोटे ठेके मिल जाते थे और अधिकारियों से मदद भी हो जाती थी। अब यह सब बंद हो चुका है। नेतागिरी की आदत लग चुकी है, दूसरा कोई काम नहीं कर सकते, यही स्थिति बनी हुई है।

अब स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं का प्रशासन अधिकारियों के हाथ में है। जनता अपने कामों के लिए इन्हीं उम्मीदवारों को पकड़ती है, लेकिन अधिकारी इन स्वघोषित नगरसेवकों की बात नहीं सुनते। चुनाव आगे बढ़ते जा रहे हैं और भावी नगरसेवकों की हालत दिन-ब-दिन दयनीय होती जा रही है। अब इनके पास बस दो ही काम हैं, नेताओं के दरवाजे पर तोरण बांधना और अपनी हालत पर मातम मनाना। तीन साल से नेता के पीछे घूम रहे हैं ताकि टिकट पक्का हो जाए, लेकिन नेता अब विधायक या सांसद बन चुके हैं और उनके आसपास भीड़ बढ़ गई है। इस भीड़ में अब नए उम्मीदवार भी नजर आ रहे हैं, जिससे पुराने भावी नगरसेवकों की चिंता बढ़ गई है।

इस बार लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जमकर पैसा बहाया गया, जिसका असर अब नगर परिषद और नगरपालिकाओं के चुनावों पर भी पड़ेगा। भावी नगरसेवक तीन साल से मतदाताओं को संभालने की जद्दोजहद कर रहे हैं, अब चुनाव में उन्हें फिर से वही करना होगा। वार्डों की नई संरचना में ज्यादा प्रत्याशी हैं, इसलिए प्रतिस्पर्धा भी बढ़ गई है। कोई अगर 1000 रुपए का चंदा देता है, तो दूसरे को भी 500 रुपए की रसीद काटनी ही पड़ती है। मतदाताओं की उम्मीदों का बोझ इन उम्मीदवारों की कमर तोड़ रहा है, जबकि नेता इन्हें दौड़ाते हुए इनका हाल और बेहाल कर रहे हैं।