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Saturday Special: चुनाव प्रचार का बदला स्वरूप: अब शोर-शराबे से हटकर मोबाइल और सोशल मीडिया पर लड़ा जा रहा चुनाव


नागपुर: नागपुर में जल्द ही महानगर पालिका के चुनाव होने वाले हैं। जिसको लेकर चुनाव आयोग सहित तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है। लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव माने जाने वाले चुनाव का स्वरूप अब तेजी से बदल रहा है। पहले जहां प्रचार के लिए गली-मोहल्लों में शोरगुल, नारों की गूंज, लाउडस्पीकरों की आवाजें और पोस्टर-बैनर की भरमार देखी जाती थी, अब उस पारंपरिक ढांचे को पीछे छोड़ते हुए प्रचार पूरी तरह हाईटेक हो गया है। आज का चुनाव प्रचार अब आपके जेब में रखे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर सिमट आया है।

पारंपरिक तरीकों जैसे जनसभाएं, रैली, पोस्टर, दीवार लेखन, प्रचार वाहन अब धीरे-धीरे तकनीक की दौड़ में पिछड़ते जा रहे हैं। बदलती टेक्नोलॉजी, डिजिटल क्रांति और सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग ने प्रचार के इस स्वरूप को एक नया मोड़ दे दिया है। यह सिर्फ प्रचार का बदलाव नहीं, बल्कि एक संपूर्ण राजनीतिक संचार क्रांति है।

कैसे बदला प्रचार का तरीका?

पहले चुनाव प्रचार का मतलब था, रैली, नारे, झंडे, दीवारों पर चित्र और गली-गली घूमते प्रचार वाहन। आज इनकी जगह ले ली है डिजिटल विज्ञापन, मोबाइल ऐप्स, फेसबुक लाइव, इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और व्हाट्सएप संदेशों ने।

अब मतदाताओं तक पहुंचने का सबसे प्रभावी और सीधा माध्यम उनका मोबाइल फोन है। एक क्लिक में एक पार्टी या उम्मीदवार लाखों लोगों तक अपना संदेश पहुंचा सकता है, और यह सब बिना किसी शारीरिक उपस्थिति या भारी खर्च के संभव है।

सोशल मीडिया बना नया युद्धक्षेत्र

2024 और अब 2025 के नगर निकाय चुनावों में सोशल मीडिया सबसे बड़ा प्रचार माध्यम बनकर उभरा है। हर प्रमुख राजनीतिक दल अब डिजिटल टीम गठित कर रहा है, जो 24 घंटे फेसबुक, ट्विटर (X), इंस्टाग्राम, यूट्यूब और टेलीग्राम जैसे प्लेटफॉर्म पर सक्रिय रहती है।

  • Instagram Reels और YouTube Shorts का उपयोग कर युवा मतदाताओं को टारगेट किया जा रहा है।
  • Facebook Live और Twitter Spaces के ज़रिए उम्मीदवार सीधे संवाद कर रहे हैं।
  • व्हाट्सएप ग्रुप्स और ब्रॉडकास्ट लिस्ट्स से क्षेत्रीय मतदाताओं तक निजी तौर पर संदेश भेजे जा रहे हैं।
  • एक उम्मीदवार का दिन अब जनसभा से अधिक “कंटेंट शेड्यूल” और "डिजिटल लाइव" तय करता है।

डेटा एनालिटिक्स से प्रचार की दिशा तय

राजनीतिक पार्टियाँ अब सिर्फ नारा नहीं गढ़ रहीं, बल्कि वोटर का डेटा भी खंगाल रहीं हैं। Big Data, AI और डेटा एनालिटिक्स की मदद से यह तय किया जा रहा है कि किस इलाके में किस प्रकार का प्रचार प्रभावी रहेगा।

  • कौन मतदाता किस मुद्दे पर संवेदनशील है?
  • किस क्षेत्र में विकास का वादा असर डालेगा और कहां जातीय समीकरण?
  • किस मतदाता को हिंदी में संदेश भेजना है, किसे मराठी में?

यह सारी रणनीति अब डेटा से तय होती है। हर उम्मीदवार के पीछे एक तकनीकी टीम होती है जो इस जानकारी के आधार पर विज्ञापन, वीडियो, ऑडियो और इमेज बना रही है।

रैलियों की जगह अब डिजिटल रोड शो

जहां पहले चुनावी रैलियों में हजारों की भीड़ जुटाई जाती थी, अब उसकी जगह डिजिटल रोड शो और वर्चुअल रैलियाँ ने ले ली है। एक बार में पूरे जिले या राज्य के मतदाताओं से जुड़ना अब संभव हो गया है और वो भी बिना मंच, माइक और भीड़ के झंझट के।

होलोग्राम तकनीक के माध्यम से एक ही समय पर कई स्थानों पर नेता के भाषण प्रसारित किए जा सकते हैं। लाइव चैट, कमेंट और पोल के ज़रिए प्रत्याशी मतदाताओं की बात सुन पा रहे हैं, कुछ सेकंड में जवाब भी दे पा रहे हैं।

Micro-Targeting और वोटर मैनेजमेंट

राजनीतिक दल अब आम जन को नहीं, बल्कि "लक्षित मतदाता वर्ग" को साधने में विश्वास रखते हैं। 18-25 आयु वर्ग, महिलाओं, वरिष्ठ नागरिकों, किसान, व्यापारी, सरकारी कर्मचारी — हर वर्ग के लिए अलग-अलग संदेश तैयार किए जाते हैं। इन्हें विशेष टूल्स द्वारा केवल उन्हीं को दिखाया जाता है।

टेक्नोलॉजी की मदद से:

  • हर बूथ का डेटा लाइव ट्रैक किया जा रहा है।
  • "वोट ट्रेंड" के आधार पर प्रचार बदला जा रहा है।
  • गूगल सर्च ट्रेंड्स से पता चल रहा है कि लोग क्या सोच रहे हैं।

ग्रामीण इलाकों में भी मोबाइल प्रचार की पहुंच

यह धारणा गलत साबित हो रही है कि डिजिटल प्रचार सिर्फ शहरी इलाकों में ही असरदार होता है। अब गांव-गांव तक 4G नेटवर्क, सस्ते स्मार्टफोन और यूट्यूब चैनलों की वजह से ग्रामीण क्षेत्र में भी मोबाइल प्रचार की व्यापक पहुंच हो चुकी है। सरल भाषा में बनाए गए वीडियो, ऑडियो संदेश और मेसेज फारवर्डिंग अब गांवों के मतदाताओं को भी तेजी से प्रभावित कर रही है।

नई तकनीक, नई चुनौतियाँ

जैसे-जैसे प्रचार डिजिटल हो रहा है, वैसे-वैसे इसके खतरे भी बढ़ रहे हैं। फेक न्यूज़, मॉर्फ्ड वीडियो, भ्रामक आंकड़े और गलत जानकारी फैलाना अब बड़ी समस्या बन चुका है। चुनाव आयोग को बार-बार सोशल मीडिया कंपनियों को चेतावनी देनी पड़ रही है। इसके अलावा, डेटा प्राइवेसी और मतदाताओं की निजता को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। बिना अनुमति के संदेश भेजना और लोगों की निजी जानकारी का दुरुपयोग एक गंभीर मुद्दा बन रहा है।