Political Explainer: बच्चू कडु की भूख हड़ताल कहीं अपनी खोई जमीन वापस पाने का प्रयास तो नहीं, उठ रहा सवाल

-अरुण जोशी
अमरावती: बच्चू कडू एक आक्रामक और सीधे नेता हैं। एक ऐसा नेता जो सरकार की गलतियों को इंगित करता है, जो किसी से नहीं डरता, किसी की नहीं सुनता और बेबाक टिप्पणी करता है। चाहे किसानों और खेत मजदूरों के मुद्दे हों, विकलांग भाइयों की ज़रूरतें हों या ग्रामीण विकास का मुद्दा हो, बच्चू कडू ने हमेशा अपनी आवाज़ बुलंद की है। लेकिन यही बच्चू कडू 2024 के चुनाव में बुरी तरह हार हुई और किंगमेकर बनने के उनके सपने चकनाचूर हो गए। यह हार ही वह वजह बनी जिसकी वजह से कडू सक्रिय राजनीति से किनारे हो गए और अब राज्य में चर्चा है कि क्या बच्चू कडू ने भूख हड़ताल के रूप में कोई रास्ता निकाला है।
अब सवाल यह है कि क्या बच्चू कडू की यह भूख हड़ताल वाकई लोगों के अंतरंग मुद्दों के लिए है? या अपनी खोई हुई राजनीतिक ताकत वापस पाने के लिए? उनकी मांगें महत्वपूर्ण हैं, जैसे किसानों की कर्जमाफी, खेत मजदूरों के अधिकार, विकलांगों का जीवन स्तर, विधवाओं के मुद्दे, ग्राम पंचायत कर्मचारियों का भविष्य, ओबीसी आरक्षण का मुद्दा, ये सभी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन बच्चू कडू मंत्री रहते हुए भी इन मुद्दों को हल कर सकते थे। उनके पास स्कूली शिक्षा, जल संसाधन, श्रम, सामाजिक न्याय जैसे महत्वपूर्ण विभाग थे।
बच्चू कडू सत्ता हथियाने के लिए सीधे गुवाहाटी चले गए, शिंदे गुट में शामिल हो गए, महायुति का हिस्सा बन गए। वे कैबिनेट में भी शामिल हो गए। लेकिन, उन्होंने तब ये मुद्दे क्यों नहीं उठाए, जबकि उनके पास वहां निर्णय लेने या काम करने का अवसर था? अब जब वे विपक्ष में हैं, तो उन्हें ये सभी मुद्दे क्यों याद आए? क्या वाकई बच्चू कडू की भूख हड़ताल और राजनीतिक समीकरण के बीच कोई संबंध है? यह सवाल अब सामने आ गया है।
राजनीति में भूख हड़ताल बारिश की तरह होती है। जैसे नदी को बहने के लिए बारिश की जरूरत होती है, वैसे ही राजनेताओं को राजनीतिक प्रवाह में बने रहने के लिए भूख हड़ताल और आंदोलन की जरूरत होती है।” लेकिन सवाल यह है। जब वे सत्ता में थे, तब इन मुद्दों पर काम क्यों नहीं किया गया? तब ये मुद्दे क्यों नहीं सुलझे? आज भी न तो भाजपा और न ही शिंदे गुट बच्चू कडू के अनशन पर ज्यादा ध्यान देता दिख रहा है। क्या सरकार उनकी मांगों को नजरअंदाज कर रही है? या फिर दोनों पार्टियां बच्चू कडू की अहमियत कम करने की चाल चल रही हैं?
कांग्रेस और शरद पवार गुट इस आंदोलन को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दे रहे हैं। तो क्या वाकई यह अनशन जनता की भलाई के लिए है? या फिर यह नए राजनीतिक समीकरणों की परीक्षा है? कुल मिलाकर यह तो माना जा रहा है कि बच्चू कडू की मांगें अहम हैं। लेकिन यह सवाल अनुत्तरित है कि क्या इनके पीछे अपना राजनीतिक अस्तित्व फिर से हासिल करने की कोशिश है। आने वाले दिनों में इन सवालों के जवाब जरूर मिलेंगे। उम्मीद है ऐसा ही होगा।

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