शीतकालीन सत्र केवल होगा सात दिनों का...! चुनाव को देखते काम काज में कटौती की तैयारी, आठ दिसंबर से शुरू होगा विधानसभा सत्र
नागपुर: नागपुर में होने वाला शीतकालीन अधिवेशन इस बार शुरुआत से ही विवादों और चर्चाओं के केंद्र में आ गया है। चुनावी तैयारियों और कामकाज में कटौती के संकेतों के बीच अब यह सवाल गंभीर रूप से उठ रहा है कि क्या राज्य सरकार इस बार अधिवेशन को केवल 7 दिनों में ही समेट देगी? यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब हम जानते हैं कि यह अधिवेशन विदर्भ के मुद्दों के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।
सूत्रों के मुताबिक शीत सत्र 8 दिसंबर से 19 दिसंबर तक प्रस्तावित है, लेकिन इसमें वास्तविक कार्यदिवस केवल 7 होने की संभावना जताई जा रही है। प्रशासन ने पहले विस्तृत अधिवेशन की तैयारी की थी, लेकिन राजनीतिक गलियारों में अब इसे छोटा करने की चर्चा तेज हो गई है। चुनावी व्यस्तताओं और मंत्रियों की अनुपलब्धता को इसका बड़ा कारण बताया जा रहा है।
लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विदर्भ समझौता स्पष्ट रूप से कहता है कि नागपुर का शीतकालीन सत्र कम से कम चार हफ्तों का होना चाहिए, ताकि विदर्भ से जुड़े लंबित मुद्दों, विकास योजनाओं, कृषि संकट, उद्योगों के विस्तार और बुनियादी ढांचे पर गंभीर चर्चा हो सके। परंतु पिछले कई वर्षों से यह परंपरा टूटती जा रही है और सत्र मुश्किल से दो हफ्तों से आगे बढ़ ही नहीं पा रहा।
अब जब इस वर्ष केवल एक सप्ताह में अधिवेशन निपटाने की बात सामने आ रही है, तो विदर्भ के नेताओं, जनप्रतिनिधियों और नागरिकों में गहरी नाराज़गी है। उनका कहना है कि अधिवेशन पर हर साल करीब 100 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, लेकिन इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बावजूद चर्चा और कामकाज सीमित कर देना विदर्भ के साथ सरासर अन्याय है।
इतिहास बताता है कि महाराष्ट्र राज्य निर्माण के दौरान हुए समझौते के बाद नागपुर का शीत सत्र विदर्भ के अधिकारों, विकास और समस्याओं को सुनने का सबसे बड़ा मंच बनकर उभरा था। लेकिन अब अधिवेशन को औपचारिकता बनाने की कोशिशें गंभीर राजनीतिक संकेत दे रही हैं।
अब निगाहें मुख्यमंत्री की भूमिका पर टिकी हैं, क्योंकि अंतिम निर्णय उन्हीं की अगुवाई में होगा। विदर्भ में यह सवाल जोर पकड़ रहा है कि जब यह सत्र खुद संविधानिक परंपरा और क्षेत्रीय संतुलन का प्रतीक है, तो आखिर इसे छोटा करने की कोशिश किसलिए हो रही है?
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