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Nagpur

हत्या के मामले में 19 साल बाद मिला न्याय, अदालत ने दायर चार्जशीट भी की रद्द; पीड़ित बोला- बच्चों को नहीं कहूंगा करो किसी की मदद


नागपुर: हमारे कानून में लिखा हुआ है, 100 मुजरिम छूट जाए, लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन मौजूदा समय में हमारी न्याय व्यवस्था में ये चीज धुंधली होती जा रही है। न्याय मिलने में लगने वाले समय के कारण लोगों हताश होते जा रहे हैं। हमारे देश में लाखों की संख्या में ऐसे मामले हैं जो सालों से अदालतों में लंबित हैं। कई मामलो में याचिकाकर्त्ता की मौत हो गई और कइयों में तो जो आरोपी है वह दुनिया में नहीं है। ऐसा ही एक मामला नागपुर में सामने आया है, जहां हत्या के एक मामले में मुख्य आरोपियों को पहले ही अदालत ने बरी कर दिया था। वहीं मामले के गवाही देने वालों सहित जांच करने वालों पुलिसकर्मियों को आरोपी बनाकर चार्जशीट दाखिल की गई थी। 19 साल बाद शुक्रवार को अदालत ने सभी जो न्याय देते हुए सभी को बरी किया, वहीं उनके खिलाफ दायर चार्जशीट को भी रद्द कर दिया। 

क्या है पूरा मामला?

2004 में धंतोली थाना अंतर्गत यशवंत स्टेडियम के पास सोहम यादव की हत्या कर दी गई थी। इस हत्या के मामले में पुलिस ने मृतक की पत्नी की शिकायत पर शिला गुड़गे और उसके बेटे बाल्या गुड़गे के खिलाफ मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हालांकि, बाद में दोनों को निचली अदालत से जमानत मिल गई। 

अपने ऊपर दर्ज मामले के खिलाफ आरोपी माँ-बेटे ने बॉम्बे हाईकोर्ट के नागपुर खंडपीठ में याचिका लगाई और कहा कि, हत्या के इस मामले में वह आरोपी नहीं है और उन्हें फंसाया जा रहा है। जिस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने पुलिस को दोबारा इस मामले की जांच करने का आदेश दिया।  अदालत के आदेश के बाद तत्कालीन पीआई कर्मकार ने मामले की जांच की और रिपोर्ट अदालत को सौंपी। इस रिपोर्ट में पुलिस ने माँ-बेटे को ही हत्या के मुख्य आरोपी बताया। 

पुलिस की रिपोर्ट के खिलाफ दोनों आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई, जिसे अदालत ने ख़ारिज कर दिया। इसके बाद आरोपियों ने दोबारा हाईकोर्ट में याचिका लगाई। जिस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने दोबारा मामले की जांच करने का आदेश दिया। अदालत ने आए आदेश पर तत्कालीन डीवायएसपी राजपूत, शेख और तत्कालीन पुलिस महासंचालक संदीप सिंह विर्क के जांच की गई।  इसके बाद अपनी रिपोर्ट अदालत को जमा की। जांच एजेंसी ने अपनी इस रिपोर्ट में भी माँ-बेटे को आरोपी बताया। हालांकि, सबूतों के अभाव में निचली अदालत ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया। 

अदालत ने मुख्य गवाहों और पुलिसकर्मियों पर मामला दर्ज करने का आदेश 

अदालत के इस आदेश के खिलाफ सरकारी पक्ष ने हाईकोर्ट में अपील की। इसके बाद दोबारा इस मामले पर अदालत ने जांच का आदेश दिया। तत्कालीन डीवायएसपी तायड़े ने मामले की जांच की और आरोपी माँ-बेटे को निर्दोष बताया। इसके बाद 2018 में तत्कालीन जज गिरटकर और देशमुख की अध्यक्षता वाली बेंच ने पुलिस को मुख्य गवाह अरविंद शर्मा, नीलकंठ उईके, धीरेन्द्र शर्मा, राज शेंद्रे और मनोज शर्मा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने का आदेश दिया। इसी के साथ उस समय मामले की जांच करने वाले पीएसआई बोरैया सहित छह पुलिसकर्मियों को भी आरोपी बनाते हुए चार्जशीट दाखिल की।

आदेश के खिलाफ पहुंचे सुप्रीम कोर्ट 

हाई कोर्ट के दिए आदेश के खिलाफ मुख्य गवाह सहित तमाम पुलिस अधिकारियों और कर्मियों ने 2022 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। दायर याचिका सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट को आरोपियों का पक्ष बिना सुने आदेश देने को लेकर फटकार लगाई और छह महीने के अंदर सभी का पक्ष जानकर मामले पर आखिरी निर्णय देना का आदेश दिया।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सुनवाई करते हुए जस्टिस विनय जोशी और वाल्मीकि मेनेझेस ने शुक्रवार को इस मामले पर अपना निर्णय सुनाया। जिसमें अदालत ने सभी आरोपी बनाए गए सभी पुलिसकर्मियों और गवाहों को बरी किया। साथ ही सभी के खिलाफ दायर चार्जशीट को भी रद्द कर दिया। 

न्याय तो मिला पर बहुत देर हो गई, परिवार बर्बाद हो गया

अदालत से बरी होने के बाद गवाहों में से एक रहे अरविन्द शर्मा ने न्याय मिलने पर जहां ख़ुशी जताई। लेकिन इतना समय लगने पर निराशा भी जताई। शर्मा ने कहा, "2004 में यह हत्या हुई थी कर 2018 में हमें अख़बार द्वारा पता चलता है की जिसे हमने अस्पताल पहुंचाया उसी की हत्या करने के मामले में हमें आरोपी बनाया गया है।  खबर पढ़ते हुए इसको लेकर मैंने वकीलों से बता की तब पता चला की हमें एक महीने के अंदर आदेश के खिलाफ अपील करनी थी ,वह समय निकल गया।

मुख्य गवाह होने और मानवता के नाते एक व्यक्ति को अस्पातल पहुंचने की कीमत, मुझे साढ़े तीन महीने जेल में काटकर चुकानी पड़ी। वहीं मेरे साथ अन्य जो लोग थे उन्हें भी जेल में रहना पड़ा। राजकुमार शेन्द्र 15-17 महीने जेल में रहे। सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालने के बाद उन्हें जमानत मिली।"

मदद करने की सजा मैंने और मेरे परिवार ने बर्बाद होकर चुकाई है। मेरी माँ की मौत हो गई, लेकिन मैं उन्हें मुखाग्नि तक  नहीं दे सका। पिता कैंसर से लड़ते-लड़ते मर गए। उस समय भी मैं कुछ नहीं कर सका। न्याय मिलने पर हुई देरी पर निराशा जताते हुए शर्मा के कहा कि, अगर मदद करने की सजा यह है तो मैं अपने बच्चों और परिजनों को किसी की भी मदद करने को नहीं कहूंगा।